Wednesday, October 29, 2008

जी बहु रे मोरे भइया ......

"जी बहु रे मोरे भइया जियो भइया लाख बरिसे हो न ,हाथ कमल मुख बिरिया भौजो के सीर सेंदुर सोहे न ........" यह लोकगीत नानी के होठों से थिरकते हुए माँ और मौसी के कंठ में रस घोलते हुए मुझ तक आपहुंचा । बचपन में भागलपुर में रहते हुए मै नानी मौसी और माँ के साथ भइया दूज के दिन ईट पर सुपाड़ी ,गाय का गोबर ,मूसल आदि रख कर पूजा करते हुए अपने भाई को याद करते हुए यह गीत गाती थी । इस गीत की धुन बड़ी मनोहारी लगती थी पर गीत के अर्थ से अनजान सी ही थी ,कई बार तो शब्द भी नहीं समझ आते थे । क्रमश: शब्द के साथ अर्थ भी समझ आने लगा और गीत का वात्सल्य भरा भाव भी ...."मेरे भइया तुम लाख वर्ष तक जियो ,भाभी का सुहाग सदा बना रहे ...."ऐसी सुंदर भावना भाव विभोर कर देती है । सच !भाई बहन के परस्पर प्रेम को यह पर्व प्रगाढ़ बनाता है और यह पर्व भारत भूमि की उपज है ,इस बात से हृदय गर्वानुभूति से भर जाता है । आज भी भइया दूज है और मै अपने एक मात्र प्यारे से छोटे से सहोदर भाई से बहुत दूर यहाँ मुंबई में हूँ । मेरा भाई 'जेता ' अपने नाम की ही तरह सभी के मन को जीतने वाला ,व्यवस्थित ,नियंत्रित ,मुझे निरंतर कुछ करने के लिए प्रेरित करने वाला व सर्व गुन संपन्न है। अब जबकि मै उस गीत का अर्थ पूरी तरह से जान गई हूँ ,उसका एक एक शब्द manan कर चुकी हूँ ,यहाँ दूर से ही अपने प्यारे भाई जेता
जिसे प्यार मै bauwa bulati हूँ ,और उसकी जीवन साथी pyari ,hasmukh paarul को aashish देते हुए यही गीत gunguna रहीं हूँ .....जी बहु रे मोरे भइया ........ ।
(ऊपर कुछ शब्द हिन्दी में परिवर्तित नहीं हो रहे हैं )

Friday, October 24, 2008

एक अनायास कोशिश

"कोशिश करने वालो की हार नहीं होती "इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैंने भी एक कोशिश की पर यह कोशिश अनायास ही हुयी । हुआ यो कि मुंबई का प्रसिद्द जुहू बीच जिसे मैंने चित्रपट के माध्यम से ही जाना था , मेरी आंखों के सामने अपनी पूरी रंगीनियाँ बिखेरते हुए सुशोभित हो रहा था , पाव भाजी ,पानी पूरी ,भेल पूरी और बर्फ के गोलों के चटकीले रंग और सागर की लहरों की चंचलता मन को चंचल बना रही थी पर जब दृष्टि सिर्फ और सिर्फ सागर की ओर टिकी तो उसका गाम्भीर्य ,उसकी गहराई उस चंचलता पर हावी हो चली और अनायास ही कुछ पंक्तियाँ मन में गूंजी जो कुछ ग़ज़ल की तरह सी थीं , इससे पहले मैंने कभी कोई ग़ज़ल नहीं लिखी थी इसलिए यह एक कोशिश है । यह अनायास कोशिश कैसी है आप बताएं ......इसमे मैं हारी तो नहीं !
"ज़िन्दगी के पन्नों से गुज़रते हुए ,
कुछ पाया तो कुछ खो दिया मैंने

प्यार है तो ज़िन्दगी है '
प्यार को ही ज़िन्दगी बना लिया मैंने

नज़रों को अपनी जो फेरा उसने
यादों में उसको बसा लिया मैंने

ज़िन्दगी सोची थी जैसी वैसी तो नहीं
जैसी भी है उसे अपना बना लिया मैंने

'आनंद' ज़िन्दगी का समंदर है कुछ इस तरह
लहरों की तरह हौसलों को सजा लिया मैंने

Sunday, October 12, 2008

एक कविता

स्नेह ,जो है
एक पवित्र भाव
एक तरंग पर तैरती
दो नाव
कभी कर्तव्य
कभी अधिकार
कभी साहचर्य
कभी प्रतिदान से रहित
कभी अपेक्षा
पर इन सबसे ऊपर
एक शुभ इच्छा ...
तुम जहाँ रहो
खुश रहो
दुःख तुम्हे छुए नहीं
स्नेह का सदा संसर्ग हो
और कभी
तुम्हारे हृदय की
अनगिनत स्मृतियों में
एक मेरा भी नाम हो

Monday, October 6, 2008

एक शिकायत दूर की मैंने

तुमने मेरे लिए कुछ नहीं लिखा !बच्चों के लिए लिखा ,माँ के लिए लिखा ,दोस्तों को भी याद किया ,सामाजिक सरोकार संबधी लेख भी लिखे और मेरे लिए कुछ भी नहीं !....एक कविता भी नहीं ! यह शिकायत मेरे जीवन साथी आनंद की है और हो भी क्यों न आख़िर उन्होंने तो ही मेरे इस ब्लॉग को बनाने में सबसे अधिक सहयोग किया है । .....पर शायद मैंने इसलिए नहीं लिखा क्योंकि जो व्यक्ति हमसे पल प्रतिपल जुडा होता है उसके साथ व्यतीत होता हुआ समय स्वयं कविता स्वरुप होता है ,फिर रस की निष्पत्ति होना कविता की सार्थकता है तो आनंद के साथ मुझे नौ रसों की अनुभूति हो चुकी है ,इसलिए आनंद से जुड़ने के बाद जीवन एक कविता सदृश ही है और जहाँ रस निष्पत्ति होती है वहीँ आनंद है तो आनंद मै आनंदित हूँ ।.......आज ७ अक्टूबर को आनंद का जन्मदिन है । आनंद के दीर्घजीवन एवं स्वस्थ जीवन की इश्वर से प्रार्थना है । ......तो शिकायत दूर हुई !

Saturday, October 4, 2008

आजकल.....

आजकल वातावरण में शक्ति का संचरण हो रहा है यानि दुर्गा के नौ रूपों का आराधन । मैं बचपन में जब भागलपुर में रहा करती थी तब अपनी नानी की अंगुली थामे इन दिनों दुर्गाजी की अनेक विशाल और मनमोहक मूर्तियाँ देखने जाया करती थी । लखनऊ जो मेरा दादीघर है वहां रावण जलाने का उत्सव अपने माँ-पिताजी ,भाई,दोस्तों एवं अन्य भाई-बहनों के साथ देखने जाती थी । दिल्ली में भी रावण जलाने का ही प्रचलन अधिक देखने को मिला पर यहाँ मुंबई शहर में सर्वत्र डाडियाँ की धूम दिखाई पड़ती है और साथ ही दुर्गा की मूर्तियाँ भी देखने को मिलती हैं । शक्ति का यह सुंदर पर्व यह स्मरण कराता है की इस देश में स्त्री कितनी सम्मानीय है पर जब सौम्या विश्वनाथन जैसी अनेक स्त्रियों के साथ जब कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटता है तो भारत की आत्मा रोती है । अभी कई सारे देवी स्थलों पर दुर्घटनाएं हुई ,ऐसा प्रतीत होता है मानो देवियाँ अपना क्रोध प्रकट कर रहीं हों ।
बात जब स्त्रियों की होती है तो अक्सर देखने में आता है की स्त्रियाँ ही स्त्रियों को नहीं समझती हैं ,नौकरी करने वाली महिलाएं घर बैठी महिलाओं की और घर बैठी महिलाएं नौकरीपेशा महिलाओं की आलोचना करतीं हैं । वास्तव में दोनों को ही एक दूसरे के महत्व को समझना चाहिए । गृहस्थ धर्मं में पूरी तरह रमने वाली स्त्री जहाँ महत्वपूर्ण है वहीँ गृहस्थ धर्मं निभाते हुए बाहरी क्षेत्र में अपना अस्तित्व तलाशने वाली स्त्री भी ग़लत नहीं है । ......नवरात्री में दुर्गा के अनेक रूपों के दर्शन होते हैं उसी तरह स्त्री भी अनेक भूमिकाओं को एक साथ निभाने की क्षमता रखती है बस सभी से सहयोग और एक स्नेह भरा हृदयस्पर्शी प्रोत्साहन अपेक्षित होता है । निश्चय ही स्त्री का यदि सही अर्थों में सम्मान हो तो इस नवरात्री में शक्ति का संचरण ही नहीं संवर्धन भी होगा ।