Tuesday, November 11, 2008

smriti

स्मृति ! कैसे विस्मृत करू तुझको
तू तो उस फूल की तरह है
जो कभी मुरझाता नहीं
तेरी गंध इतनी सोंधी है
कि जिसे जब भी मैं
अनुभव करती हूँ
धस जाती हूँ
अपनत्व की मिटटी में ,
तेरी ममता उडेल देती है
प्यार का सागर
मेरी रिक्तता में ,
तेरे अनेक चित्र
मेरे मन की आंखों को
रंग देते हैं
तेरे अनेक प्रेमिल प्रतिरूप
मुझे संबल देते हैं
तेरी अठखेलियाँ
मुझे मेरा बचपन देती हैं
तेरी गहराइयाँ
मुझे जीवन का दर्शन देती हैं
स्मृति !कैसे विस्मृत करू तुझको
तू तो उस स्वप्न की तरह है
जो सदैव साकार होता है
उस संगीत की तरह है
जो सदैव गुंजार होता है
उस मीत की तरह है
जो सदैव मन की पुकार होता है
स्मृति !क्यों क्यूकर विस्मृत करू तुझको

3 comments:

Udan Tashtari said...

वाह! बहुत सुन्दर.

संगीता-जीवन सफ़र said...

तेरी गहराइयाँ
मुझे जीवन का दर्शन देती हैं/बहुत सुंदर भाव!बहुत-बहुत बधाई/

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाह आपकी प्रस्तुति को नमन