Wednesday, November 18, 2009

सवालों के हल

छूना चाहती हूँ आकाश
पर धरती से नही
टूटना चाहती
नापना चाहती हूँ ऊंचाई
पर आधार नहीं
खोना चाहती
उड़ना चाहती हूँ
पर बिखरना नही चाहती
होना चाहती हूँ मुक्त
पर बंधन नही तोडना चाहती
होना चाहती हूँ व्यक्त
पर परिधि नहीं लांघना चाहती
.......
देखती हूँ मेरा न चाहना
मेरे चाहने से अधिक प्रबल है
और फिर
मेरा न चाहना भी तो
मेरा चाहना ही है
इसलिए शायद
मेरे सवालों का
मेरे पास ही हल है

5 comments:

वाणी गीत said...

होना चाहती हूँ मुक्त
पर बंधन नही तोडना चाहती
नारियों की इस दुविधा को बखूबी शब्दों का जमा पहनाया है आपने ...बहुत खूब ...!

निर्मला कपिला said...

देखती हूँ मेरा न चाहना
मेरे चाहने से अधिक प्रबल है
और फिर
मेरा न चाहना भी तो
मेरा चाहना ही है
इसलिए शायद
मेरे सवालों का
मेरे पास ही हल है
सच है आदमी के बस मे बहुत कुछ नहीं है सुन्दर अभिव्यक्ति बधाई

अखिलेश शुक्ल said...

bahot hi acchi kavita hai apki. Kyo na isai published karwani ka liyai bhaj dai.
akhilesh shukla

अखिलेश शुक्ल said...
This comment has been removed by the author.
JETA said...

Great di.
I know you can manage all the fronts at a time.
Our best wishes are always with you.

Baua.